हिन्दी कबिता
“अकिदा और हम“
अकायदों के घरोंदे बिखर रहे हैं ,
सडकों पे इधर उधर जहाँ तहाँ बिखर रहे हैं
मुझको अंदेशा है –––
बादशाहों की कोई दुसरी किरदार
हामारे उपर थोपे जा रहे हों,
मेरी मुखालिफत है और खौफ भी,
भुुख और् जंग फीर से हमारी आदतें ना बने ।
मौजुदा वक्त के नक्कालों भरे बादशाहों से,
आग के शोलों मे अकिदे जल रहे हैं ,
इस हालात का मै मुखालिफ हुँ ।
भुख इक आग है,
ये किसीके इशारों पे नही चलती,
आग की खुद की इक रफ्तार होती है,
मोआशरे की तब्दीली के खातिर,
अमन और सुख चैन की खातिर,
अद्लो इंसाफ और बराबरी चाहिये ।
अकीदों की चादरों को ओढकर,
उस जंग की तु आगाज कर,
कोरोना तुम आगके शोलों की मिस्ल बनके आओ,
बेबस् भुखों के आँसुओं की सैलाब बनके आओ,
क्यों इन बेजान अकीदों मे तुम उलझते हो,
हमें इन्कलाब और वो आजादी है दरकार,
एहसासों की भुख और महसुसों की ख्वाब बने,
हामारी आंंगनों मे सुब्हु की किरणों की आमद हो
–देवेन्द्रकिशोर ढुंगाना ,
भद्रपुर(झापा)
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